शक्ति उपासना की दृष्टि से नवरात्रि काल सर्वाधिक उपयुक्त समय है। नवरात्रि में साधना के दो आयाम देखने को मिलते हैं। वैयक्तिक और सामूहिक। वैयक्तिक साधना में एकान्त और एकाग्रता की आवश्यकता है जबकि सामूहिक साधना में आराधना का मिश्रित और सामुदायिक स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। दोनों के माध्यम से दैवी कृपा की प्राप्ति हो सकती है। नवरात्रि में साधना का तीसरा स्वरूप और देखने को मिलता है जिसका नाम है दिखावा। एैसे लोगों का स्वभाव, चरित्र और लोक व्यवहार भिन्न-भिन्न हो सकता है। स्मरण रहे कि साधना का आरम्भिक चरण है शुचिता अर्थात सभी प्रकार की पवित्रता। बिना शुद्धि के सिद्धि या दैवी कृपा पाने की कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए। चित्त में मलिनता, दिमाग में खुराफात और बीमारी की अवस्था को लेकर की जाने वाली किसी भी प्रकार की साधना का कोई मतलब नहीं होता। जो लोग मलिन, दुष्ट और आसुरी भावों वाले हैं उन लोगों की साधना का कोई अर्थ नहीं है। सोच-विचार और कर्मों में अशुद्धि, किसी के प्रति क्रोध, प्रतिशोध, नकारात्मक व राक्षसी भावों के रहते हुए साधना कभी सफल नहीं होती। यही कारण है कि एैसे लोगों की साधना केवल पा
खण्ड और आडम्बर तक सीमित रह जाती है और ये लोग जीवन में कुछ नहीं कर पाते।
रूपया पैसा और वैभव प्राप्त कर लेना, भ्रष्टाचार और हराम की कमाई से सम्पन्नता का चरम पा लेना अपने अहंकार को परितृप्त तो कर सकता है लेकिन आत्मशांन्ति या जीवन की सफलता नहीं दे सकता। नवरात्रि को जो लोग अपने जीवन के लिए उपलब्धिमूलक बनाना चाहते हैं उनके लिए मेरा यही सुझाव है कि पहले वे पुराने पापों और मलिनताओं के निवारण के लिए प्रयास करें। इसके लिऐ यह दृढ़ संकल्प भी लिया जाना जरूरी है कि पुरूषार्थ और परिश्रम से प्राप्त कमायी को ही अपने शरीर और घर-परिवार के लिए काम में लिया जाये, तभी शुद्धिकरण की प्रक्रिया भी चलती रहेगी और नवीन दोष या पापांे का बोझ बढ़ना भी थम ही जायेगा। एैसा होने पर ही शुद्धिकरण की प्रक्रिया दृढ़ होकर धीरे-धीरे तन-मन और मतिष्क और कर्म सभी कुछ पावन हो सकते हैं और इसी शुचिता के माध्यम से शरीर साधना का उपयुक्त मंच बनकर उभर सकता है। अन्यथा इसके बिना साधना का कोई अर्थ नहीं।
पवित्रता के साथ की जाने वाली साधना से दैवीय ऊर्जाओं का प्रवाह एवं संग्रहण तेज हो जाता है और वह साधक के चेहरे, मन और वाणी से परिलिक्षित होने लगता है। यह अपने आप में साधना का प्रारम्भिक चरण है जहां से आगे बढ़ने पर सिद्धि और साक्षात्कार कुछ भी संभव हो पाता है। नवरात्रि में 9 दिन का व्रत-उपवास और स्तुति या मंत्र गान आदि तमाम तभी सार्थक हैं जबकि मन से हों, दिखावट के लिये न हो। साधना काल मंे हम हों और सामने देवी मैया के विराजमान होने का भाव हो। कोई तीसरा न बीच में आये। न पास रहे और न ही ध्यान में आये। एैसा होने पर ही हमारा यह कर्म वास्तविक साधना में गिना जा सकता है। अन्यथा हम जो कुछ कर रहे हैं वह ढोंग और नवरात्रि के नाम पर धींगामस्ती के सिवा कुछ नहीं है। यही स्थिति सामूहिक साधना में है। जहां हम जो कुछ करते हैं उसके साक्षी और लक्ष्य देवी मैया ही हों, जमाना नहीं।
नवरात्रि के महत्व को समझने और इसका भरपूर उपयोग करने की आवश्यकता है। साधना में संख्या या अधिकाधिक समय का कोई मूल्य नहीं है बल्कि कितने समय हम एकाग्रता और दैवी के प्रति अन्यतम समर्पण रख पाते हैं, यही मुख्य है। जो भी साधना करें, प्रसन्नता से करें। जितनी देर आसानी से हो सके, उतनी ही करें तथा यह ध्यान रखें कि उस समय तल्लीनता में कोई कमी न आने पावे। मन न लगे तो कुछ देर प्रयास करें, संकल्प को दृढ़ बनायें। अपने आप एकाग्रता जागृत हो जायेगी। इसके बाद भी अगर चित्त न लगे तो थोड़ी देर बाद साधना करें। देवी के बहुत सारे मंत्रों और स्तोत्रों को करने की बजाय एक ही मंत्र या स्तोत्र का अधिक से अधिक संख्या में जप करने का अभ्यास डालने से वह मंत्र या स्तोत्र जल्दी जाग्रत एवं सिद्ध हो जाता है तथा इसका फल शीघ्र मिलने लगता है।
बहुत सारी साधनाएं एक साथ करने की बजाय सिद्धि प्राप्ति के लिये सर्वाधिक जरूरत यह है कि एक को ही अपनायें और अधिकाधिक संख्या में करते हुये इसकी शक्तियांें को बढ़ायें। फिर इसके बाद आप कोई दूसरा मंत्र भी अगर मामूली संख्या में भी करेंगे तो वह अपने आप सिद्ध हो जाते हैं, इनके लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस रहस्य को जो जान लेता है वह साधक अपने आप कई सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। तो फिर पाठकों इस बार की नवरात्री को व्यर्थ न जाने दें, देवी मैया की आराधना में यथासमय और यथाशक्ति कुछ करें और लाभ पाएं।
आदिशक्ति मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की आराधना का पर्व शारदीय नवरात्र हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। आश्विन शुक्लपक्ष प्रथमा को कलश की स्थापना के साथ ही भक्तों की आस्था का प्रमुख त्यौहार शारदीय नवरात्र आरम्भ हो जाता है। एक अक्टूबर से प्रारम्भ हो रहे शारदीय नवरात्र में सन् 2000 के बाद फिर से ऐसा संयोग बन रहा है कि नवरात्र 10 के बजाए 11 दिन तक चलेगा। नवरात्र की दूज तिथि लगातार दो दिन है। घट विसर्जन नवमी तिथि पर होगा। जबकि दशहरा 11 अक्टूबर को मनाया जाएगा। ऐसे में नवरात्र तो 10 दिन के होंगे, लेकिन नवरात्र पूरे 11 दिन तक रहेगा। वहीं, इस बार पितृपक्ष 16 दिनों के बजाए 15 दिन का है। जो 16 सितंबर से शुरू होकर 30 सितम्बर तक है। तिथियों के क्षय होने व बढने की वजह से ही ऐसी तिथियां बदलती हैं।
वैदिक साहित्य में उमा, पार्वती, अम्बिका, हेमवती, रूद्राणी और भवानी जैसे नामों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद के दशम मंडल का एक पूरा सूक्त शक्ति उपासना के कारण देवीसूक्त कहा जाता है। जगत के उद्भव, पालन और संहार की कथा जिसे देवी से सम्बन्ध किया जाता है, उसका सूत्र ऋग्वेद में मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद और शतपथ ब्राह्मणों में भी अम्बिका का उल्लेख किया गया है। केनोपनिषद में उमा को विद्यादेवी का रूप मानते हुये हेमवती कहा गया है। महाभारत के उद्धरण भी देवी शक्ति का महत्व स्पष्ट करते हैं। अर्जुन द्वारा युद्ध में विजय की कामना स्वरूप दुर्गा की आराधना विभिन्न नामों से करते हुये दर्शाया गया है। एक स्तुति के रूप में देवी का जन्म जन्दगोप के वंश में यशोदा के गर्भ से होना भी बताया गया है। मार्कण्डेय पुराण में तो शक्ति की महत्ता और सर्वशक्तिमान होने का विशद वर्णन मिलता है। उसमें शक्ति के 3 रूप माने गये हैं- महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती। इसी पुराण में ही देवी दुर्गा से सम्बन्ध दुर्गासप्तशती विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। नवरात्र काल में उपासक इसका पाठ करते हैं।
यज्ञ आदि अवसरों पर जल यात्रा और मंगल कलश स्थापना में कुमारी कन्याओं को प्राथमिकता दी गयी है। इससे इन अनुष्ठानों की पवित्रता चरितार्थ होती हैैै। शास्त्रों में जगह-जगह इसकी प्रशंसा की गयी है। जो कुमारी को अन्न, वस्त्र, जल अर्पण करता है, उसक अन्न मेरू पर्वत के समान और जल समुद्र के समान अक्षुण्ण और अनन्त होता है। योगिनी तन्त्र के अनुसार ‘‘कुमारी पूजा का फल अवर्णनीय है, इसलिए सभी जाति की बालिकाओं को पूजन करना चाहिए। कुमारी पूजन में जाति भेद का विचार करना उचित नहीं। काली तंत्र में कहा गया है कि ‘‘सभी बड़े-बड़े पर्वो पर अधिकतर पुण्य मुहुर्त में और महानवमी की तिथि को कुमारी पूजन करना चाहिए।
वृहन्नील तंत्र के अनुसार ‘‘पूजित हुई कुमारियां विघ्न, भय और अत्यन्त उत्कृष्ट शत्रु को भी नष्ट कर डालती हैं। रूद्रयामल में वर्णन है कि ‘‘कुमारी साक्षात योगिनी और श्रेष्ठ देवता हैं। विधि युक्त कुमारी को भोजन अवश्य करायें। कुब्जिका तंत्र ग्रन्थ कहता है कि ‘‘कुमारी को पाद्य, अघ्र्य, कुंकुम और शुभचन्दन आदि अर्पण करके भक्ति भाव से उनकी पूजा करें। दो वर्ष से लेकर 10 वर्ष की कुमारियों का ही पूजन श्रेष्ठ है। इसमें 2 वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की सुभद्रा कही गयी है। रूद्रयामल के उत्तराखंड में वर्णन है कि जब तक ऋतु का उद्गम न हो, तभी तक क्रमशः संग्रह करके प्रतिपदा आदि से लेकर पूर्णिमा तक वृद्धि भेद से कुमारी पूजन करना चाहिए।
घट स्थापना और पूजन
दुर्गा पूजा का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है अतः यह नवरात्र घट स्थापना प्रतिपदा तिथि को एक अक्टूबर, शनिवार के दिन की जाएगी। घटस्थापना का शुभ मुहूर्त सुबह 06 बजकर 17 मिनट से लेकर 07 बजकर 29 मिनट तक का है। इस दिन सूर्योदय से प्रतिपदा तिथि, हस्त नक्षत्र, ब्रह्म योग होगा। सूर्य और चन्द्रमा कन्या राशि में होंगे। आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है। कलश को गणेश का रूप माना जाता है जो कि किसी भी पूजा में सबसे पहले पूजनीय है। इसलिए सर्वप्रथम घट रूप में गणेश जी को बैठाया जाता है।
कलश स्थापना और पूजन के लिए महत्वपूर्ण वस्तुएं
मिट्टी का पात्र और जौ के 11 या 21 दाने शुद्ध साफ की हुई मिट्टी जिसमें पत्थर न हों, शुद्ध जल से भरा हुआ मिट्टी, सोना, चांदी, ताम्बा या पीतल का कलशमोली (लाल सूत्र) अशोक या आम में 5 पत्ते, कलश को ढकने के लिए मिट्टी का टक्कन, साबुत चालव, एक पानी वाला नारियल, पूजा में काम आने वाली सुपारी, कलश में रखने के लिये सिक्के, लाल कपड़ा या चुनरी, मिठाई, लाल गुलाब के फूलों की माला।
कलश स्थापना की विधि
महर्षि वेदव्यास के द्वारा भविष्यपुराण में बताया गया है कि कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को अच्छे से शुद्ध किया जाना चाहिए। उसके उपरान्त एक लकड़ी के पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर थोड़े चावल गणेश जी को स्मरण करते हुये रखें जाने चाहिए। फिर जिस कलश को स्थापित करना है उसमें मिट्टी भर के और पानी डाल कर उसमें जौं बो देना चाहिए। इसी कलश पर रोली से स्वास्तिक और ऊं बनाकर कलश के मुख पर मोली से रक्षा सूत्र बांध दें। कलश में सुपारी, सिक्का डालकर आम या अशोक के पत्ते रखे दें और फिर कलश के मुख को ढक्कन से ढक दें। ढक्कन को चावल से फार दें। पास में ही एक नारियल जिसे लाल चुनरी से लपेटकर रक्षा सूत्र से बांध देना चाहिए। इस नारियल को कलश के ढक्कन पर रखें और सभी देवी देवताओं का आह्वाहन करें। अन्त में दीपक जलाकर कलश की पूजा करें। कलश पर फूल और मिठाई चढ़ा दें। अब हर दिन नवरात्रों में इस कलश की पूजा करें। ध्यान रहें कि जो कलश आप स्थिापित कर रहे हैं वह मिट्टी, ताम्बा, पीतल, सोना या चांदी का होना चाहिए। भूल से भी लोहे या स्टील के कलश का प्रयोग न करें।
मार्कण्डेय पुराण में शक्ति(दुर्गा) के नौ रुपों की चर्चा की गई है और नवरात्र में इनकी पूजा के विशेष फल बताए गए हैं। देवी दुर्गा जी की पूजा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। भगवान श्री राम जी ने भी विजय की प्राप्ति के लिए माँ दुर्गा की उपासना कि थी। ऐसे अनेक पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है। इसी आधार पर आज भी माँ दुर्गा की पूजा संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत हर्षोउल्लास के साथ की जाती है। नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व में माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है।
नवरात्र 2016 की तिथियां
01 अक्टूबर, 2016 - इस दिन घटस्थापना शुभ मुहूर्त सुबह 06 बजकर 17 मिनट से लेकर 07 बजकर 29 मिनट तक का है। प्रथम नवरात्र को देवी के शैलपुत्री रूप का पूजन किया जाता है।
02 अक्टूबर 2016 - इस वर्ष प्रतिपदा तिथि दो दिन होने की वजह से भी देवी शैलपुत्री की पूजा की जाएगी।
03 अक्टूबर 2016 - नवरात्र की द्वितीया तिथि को देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है।
04 अक्टूबर 2016 - तृतीया तिथि को देवी दुर्गा के चन्द्रघंटा रूप की आराधना की जाती है।
05 अक्टूबर 2016 - नवरात्र पर्व की चतुर्थी तिथि को मां भगवती के देवी कूष्मांडा स्वरूप की उपासना की जाती है।
06 अक्टूबर 2016 - पंचमी तिथि को भगवान कार्तिकेय की माता स्कंदमाता की पूजा की जाती है।
07 अक्टूबर 2016 - नारदपुराण के अनुसार आश्विन शुक्ल षष्ठी को मां कात्यायनी की पूजा करनी चाहिए।
08 अक्टूबर 2016 - नवरात्र पर्व की सप्तमी तिथि को मां कालरात्रि की पूजा का विधान है।
09 अक्टूबर 2016 - अष्टमी तिथि को मां महागौरी की पूजा की जाती है। इस दिन कई लोग कन्या पूजन भी करते हैं।
10 अक्टूबर 2016 - नवरात्र पर्व की नवमी तिथि को देवी सिद्धदात्री स्वरूप का पूजन किया जाता है। सिद्धिदात्री की पूजा से नवरात्र में नवदुर्गा पूजा का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है।
11 अक्टूबर 2016 - बंगाल, कोलकाता आदि जगहों पर जहां काली पूजा या दुर्गा पूजा की जाती है वहां दसवें दिन दुर्गा जी की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है।
कब-कब आते हैं नवरात्र
मां दुर्गा को केन्द्रित करने वाला देवीपुराण के अनुसार मुख्य नवरात्र वर्ष में 2 बार आते हैं। भारतीय वर्ष के पहले महीने चैत्र (मार्च/अप्रैल) में पहले नवरात्रे आते हैं, जिन्हें वासन्ती रावरात्रे के नाम से जाना जाता है। इन्हें गुप्त नरवरात्रे भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त आश्विन मास (सितम्बर/अक्टूबर) में आने वाले नवरात्रों को मुख्य नावरात्रे माना जाता है। इन्हें शारदीय नवरात्रों के नाम से जाना जाता है। इन 2 माह के अलावा भी 2 और नवरात्रे माने जाते हैं जो आषाढ़ (जून/जुलाई) और माघ (जनवरी/फरवरी) में आते हैं।
नवरात्रि का यह दिव्य भाव कुमारी कन्याओं तक ही सीमित नहीं है, वरन उसका क्षेत्र अत्यन्त विशाल है। प्रत्येक नारी में देवत्व की मान्यता रखना और उसके प्रति पवित्रतम श्रद्धा रखना एवं वैसा ही व्यवहार करना उचित है, जैसा कि देवी-देवताओं के साथ किया जाता है। नारी मात्र को भगवती गायत्री की प्रतिमांए मानकर जब साधक के हृदय को पवित्रता का अभ्यास हो जाये तो समझिए कि उसके लिए परम सिद्धि की अवस्था अब निकट है। जब हमारे शास्त्रों में नारी को इतना सम्मान दिया गया है तो इस नवरात्रि पर हम सब यह भी सोचें कि लडकों और लड़कियों में भेद क्यों? कन्या भू्रण हत्या क्यों? नारी से बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि क्यों। तब हमारी बृद्धि कहा चली जाती है? इन्ही शब्दों के साथ ‘‘जय जय श्रीराधे’’